हर साल धान के मौसम में बिहार से भारी संख्या में लोगबाग पंजाब की अनाज मंडियों की तरफ़ जाते हैं. जूट के बोरे में धान पैक कर ट्रक में डालने. चूंकि इसमें दिहाड़ी मज़दूरी की रक़म 400 के क़रीब है, जो बिहार से दुगनी है, तो मेहनतकश मज़दूर जनरल डिब्बे में सवार होकर पंजाब के विभिन्न इलाक़ों की मंडियों में डेरा जमा लेते हैं. एक महीने दिन रात मेहनत कर औसतन बीस हज़ार रुपये नक़द लेकर ये मज़दूर घर लौटते हैं. इसमें उन लोगों की कमाई और ज़्यादा होती है, जो अपने संग दस-बारह मज़दूरों की टोली ले जाते हैं. मज़दूरों और मज़दूरों के ठेकेदारों का अपना अर्थशास्त्र होता है. लेकिन इस बार नोटबंदी के कारण इन प्रवासी मज़दूरों की स्थिति ख़राब है.
पंजाब में इस बार उन्हें अपनी मज़दूरी के एवज़ में जो 500-1000 के नोट मिले हैं, परेशानी की वजह बन गए हैं. दिहाड़ी करने वाले इस तरह के मेहनतकश बैंक खाता और एटीएम से दूर ही होते हैं. ये लोग नकद से ही जीवन चलाते हैं.
कुछ दिन पहले गांव के हरीश, सुमन और क़ुतुबुद्दीन से मुलाक़ात हुई. इन तीनों की परेशानी यह है कि पंजाब में मज़दूरी करने के बाद उनके पास जो पैसा आया है अब वह खाते में जमा करने के बाद ही उनका ‘अपना’ कहलाएगा क्योंकि सभी नोट 500-1000 के हैं. जनधन योजना के तहत इनके पास स्टेट बैंक में खाता है लेकिन बैंक की एबीसीडी इन्हें आती नहीं है.
सुमन ने बताया, ‘इस एक महीने की कमाई से हम मक्का और आलू की खेती करते हैं, लेकिन खाद-बीज के लिए जो छोटे नोट चाहिए वह मेरे पास हैं नहीं, तो इस बार तो एक एकड़ की खेती गई मेरी. अब आप ही कहिए हम क्या करें.’
जालंधर के करतारपुर मंडी में दिन रात मेहनत करने के बाद पैसे कमाने वाले इन प्रवासी मज़दूरों की मजबूरी को समझना होगा. हरीश ने बताया, ‘करतारपुर में 1000 के नोट पर 900 ही मिले. यहां लौटना था और इसके लिए यात्रा के दौरान ख़र्च के लिए छुट्टे पैसे चाहिए थे, इसलिए 100 रुपये घाटा सहकर हमने पैसे उठाए. अब जब घर लौटा हूं तो खाद-बीज के लिए पैसे रहने के बावजूद तड़प रहा हूं.’
नोटबंदी के बाद जनधन योजना के खाते को लेकर जो बातें सामने आई हैं, उसे लेकर भी ग्रामीण असमंजस में हैं. दरअसल नोटबंदी की घोषणा के बाद देश के कई हिस्सों से जन-धन खातों में बड़ी मात्रा में नकदी जमा होने की खबरें आने के बाद वित्त मंत्रालय ने जन-धन खातों में नकदी जमा करने की सीमा घटाकर 50,000 रुपये कर दी है. आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास ने 15 नवंबर को कहा था कि कुछ लोग जन-धन खातों में अपना काला धन जमा कर रहे थे, अब जन-धन खातों में सिर्फ 50,000 रुपये ही जमा किए जा सकेंगे. इस तरह की ख़बरों को रेडियो के ज़रिये जानने के बाद गांव के सिंकदर बताते हैं कि लुधियाना में मज़दूरी कर उन्होंने 70 हज़ार रुपये कमाए हैं, अब वे इस पैसे को कहां रखें. उन्होंने कहा, ‘ये मेरी मेहनत की कमाई है. बैंक वाले पैन नंबर के बारे में पूछ रहे हैं. मुझे पता नहीं है कि पैन नंबर क्या होता है. मेरी मेहनत की कमाई है. मज़दूर हूं, यही मेरा नम्बर है.’
नोटबंदी के इस दौर में किसानी समाज ने जो चुप्पी साधी है, वह ख़तरनाक है. लोगबाग अंदर ही अंदर परेशान हैं. खाद के अभाव में उपज प्रभावित होगी. बैंक को लेकर अभी ग्रामीण समाज सजग नहीं हुआ है. यदि होता तो इंदिरा आवास से लेकर महात्मा गांधी रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) से लोगों के दिन बदल गए होते. बैंक अभी भी यहां के लोगों के लिए बड़ी चीज़ है और इसी का फ़ायदा चिटफ़ंड कम्पनियां उठाती हैं और घर जाकर उन्हें ऊंचे दर पर ऋण उपलब्ध करवाती हैं. बैंक की दुनिया से अनजान इन मेहनतकशों के बारे में सोचना चाहिए.
गिरीन्द्रनाथ झा किसान हैं और खुद को कलम-स्याही का प्रेमी बताते हैं…
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