अपने लाल किले के भाषण को नरेंद्र मोदी ने शुद्ध चुनावी भाषण बना दिया। वे ऐसे बोले जैसे किसी चुनावी सभा में अपनी सफलताओं या काम-काज का ब्यौरा पेश कर रहे हों। इसमें कोई बुराई नहीं है, क्योंकि जनता मालिक है और नेता सेवक हैं। इसीलिए उन्हें मालिक के सामने अपने काम-काज का ब्यौरा पेश करना ही चाहिए। उसके लिए इससे बढ़िया मौका क्या हो सकता है ? देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो रोज़ अखबार नहीं पढ़ते, टीवी चैनलों पर खबरें नहीं देखते, संसद की कार्रवाई में उनकी खास रुचि नहीं होती लेकिन 15 अगस्त की सुबह वे अपने रेडियो और टीवी खोलकर बड़े भक्तिभाव से लाल किले का कार्यक्रम देखते हैं। प्रधानमंत्री चाहते तो भारत के सवा सौ करोड़ लोगों के लिए अत्यंत प्रेरणादायक भाषण दे सकते थे। जो प्रेम की बात उन्होंने कश्मीर के बारे में कही, गोली और गाली को गलत बताया, वैसी कई बातें वे अनेक मुद्दों पर कह सकते थे। मंत्र रुप में यह वाक्य भी उनके मुंह से अच्छा निकला कि भारत के नगारिकों को अब ‘सुराज्य उनका जन्म-सिद्ध अधिकार है’, यह कहना चाहिए। उन्होंने गोरखपुर के सरकारी अस्पताल में हुए हत्याकांड का जिक्र किया, यह भी अच्छी तात्कालिक प्रतिक्रिया मानी जा सकती है लेकिन अपने पौन घंटे के भाषण में भारत की मूलभूत समस्याओं और उनके स्थायी समाधान के बारे में मोदी ने कुछ भी नहीं बोला। नोटबंदी के फायदे गिनाए लेकिन उसे गलत ढंग से लागू करने के लिए जनता से माफी नहीं मांगी और यह भी नहीं बताया कि उससे देश को कितना जबर्दस्त झटका लगा है। घटते हुए रोजगार पर प्रधानमंत्री ने शब्दों की फीकी चाशनी परोस दी। ‘फर्जिकल स्ट्राइक’ से संसार में उन्होंने अपना लोहा भी मनवा दिया। एक तरह से सारा भाषण बड़ा उबाऊ और शिथिल था। इसीलिए सिर्फ बच्चों ने एक-दो बार तालियां बजा दीं। समझदार लोग जो ऊपर बैठे थे, उनकी सूरतें देखने लायक थीं। कई आपस में बातें कर रहे थे, कई ऊंघ रहे थे, कई आसमान की तरफ ताक रहे थे और कुछ अपने मोबाइल फोन से लगातार खेल रहे थे। विदेश नीति की बात जाने दें, मोदी से आशा थी कि वे चीन और पाकिस्तान के बारे में तो जरुर कुछ बोलेंगे लेकिन इस मामले में वे चौधरी चरणसिंह से भी आगे निकल गए।