दोकलाम पर छिड़ा भारत-चीन विवाद फिलहाल खत्म हुआ, यह दोनों एशियाई राष्ट्रों की कूटनीतिक विजय है। इसमें यह समझना कि दोनों में से एक हारा और एक जीता, गलत होगा। यह प्रश्न भी अब असंगत हो गया कि किस देश ने अपनी फौजों को पहले पीछे हटाया ? दोनों ही राष्ट्रों के नेताओं की मजबूरी है कि वे अपनी-अपनी जनता को यह बताएं कि उन्होंने अपनी नाक नहीं कटाई। चीन के लिए यह ज्यादा बड़ी मजबूरी है, क्योंकि पिछले ढाई माह में दोकलाम के मुद्दे पर चीनी प्रवक्ताओं, अखबारों और विशेषज्ञों ने जितनी जुबान चलाई है, उसके मुकाबले भारत की तरफ से बहुत संयम रखा गया है। हमारे प्रचारप्रिय प्रधानमंत्री ने तो गजब का संयम दिखाया। एक शब्द तक नहीं बोला जबकि अहमदाबाद में मोदी के संग झूला झूलनेवाले चीनी नेता शी चिन पिंग ने घुमा फिराकर भारत पर वार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में और उसके बाहर सारे मामले को बहुत ही मर्यादित ढंग से पेश किया। जैसा उन्होंने चाहा था कि दोनों देशों की फौजें दोकलाम से एक साथ पीछे हटें। वे पीछे हट गईं। अब चीन कह रहा है कि भारत की पहले हटीं तो उसने भी अपनी हटा लीं। और दोकलाम पर वह अब भी पहरेदारी कर रहा है। उसने उस पर अपना मालिकाना हक छोड़ा नहीं है। बेहतर होगा कि भारत अब इस बतंगड़ी दलदल में अपने को न फंसाए, क्योंकि अगले सप्ताह हमारे प्रधानमंत्री को ‘ब्रिक्स राष्ट्रों’ की बैठक में चीन जाना है। उसमें खलल क्यों डाला जाए? ज्यों ही यह विवाद शुरु हुआ था, हमने कहा था कि यह बातचीत से सुलझाया जा सकता है और मुठभेड़ दोनों राष्ट्रों के लिए नुकसानदेह होगी। यदि भारत सरकार ने थोड़ा लचीलापन दिखाया है तो इसे मैं भारत की कमजोरी नहीं, कूटनीतिक चतुराई कहूंगा। यदि यह विवाद तूल पकड़ जाता तो भारत-चीन संवाद ही बंद हो जाता जबकि इस समय दोनों देशों के बीच व्यापार के अलावा पुराना सीमा-विवाद, भारत का परमाणु सप्लायर्स क्लब में प्रवेश, पाकिस्तान के आतंकियों को संयुक्तराष्ट्र संघ से चिन्हित करवाना और कब्जाए हुए कश्मीर में ‘ओबोर मार्ग’ का बनना आदि ऐसे ज्वलंत मुद्दे हैं, जिन पर तुरंत सार्थक संवाद शुरु होना चाहिए। इस बार भारत और चीन एक-दूसरे के साथ अच्छे पड़ौसियों की तरह पेश आए हैं। यदि यही भाव दोनों के बीच बना रहे तो 21 वीं सदी एशिया की सदी बनकर रहेगी।