डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फिल्म पद्मावती का प्रदर्शन अब एक दिसंबर से शुरु नहीं होगा, यह अच्छी खबर है। अब फिल्म-निर्माता और फिल्म-विरोधियों को इस फिल्म पर ठंडे दिमाग से सोचने का समय मिल जाएगा। मुझे पूरा विश्वास है कि फिल्म को देखकर उन्हें काफी संतोष होगा। यदि उसमें सुधार के कुछ सुझाव वे देंगे तो फिल्म प्रमाणीकरण पर्षद (सेंसर बोर्ड) उन पर विचार करेगा और वे सुझाव उसे ठीक लगेंगे तो वह फिल्म-निर्माता को वैसे निर्देश देगा, जिसे यदि वह नहीं मानेगा तो फिल्म सार्वजनिक तौर पर दिखाई नहीं जा सकेगी। इसी आशय की बात राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कही है। यदि सेंसर बोर्ड की सहमति के बावजूद कुछ लोगों को फिल्म आपत्तिजनक लगे तो उन्हें अधिकार है कि वे उसका विरोध करें लेकिन वह विरोध अमर्यादित न हो और हिंसक न हो। वह राजपूत समाज की अप्रतिष्ठा और मजाक का कारण न बने, यह जरुरी है। मैंने यह फिल्म काफी गौर से देखी है। मुझे इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं लगा। हां, एकाध जगह उसे बेहतर बनाने का सुझाव मैंने दिया है। इसमें अलाउद्दीन खिलजी का खलनायकत्व जमकर उभरा है और महाराजा रतनसिंह की सज्जनता और वीरता भी काफी प्रभावशाली ढंग से चित्रित हुई है। और पद्मावती के क्या कहने ? उसे अप्रतिम सौंदर्य की प्रतिमूर्ति तो बनाया ही गया है, साथ-साथ उसके शौर्य और रणनीति-कौशल को इतना तेजस्वी और अनुकरणीय रुप दिया गया है कि देश की प्रत्येक महिला उस पर गर्व कर सकती है। झूठी अफवाहों के आधार पर जो आरोप लगाए जा रहे हैं, जैसे अलाउद्दीन और पद्मावती के प्रेम-प्रसंग, दोनों का एक-दूसरे के सपनों में आना, घूमर नृत्य की अश्लीलता आदि का लेश-मात्र संकेत भी इस फिल्म में नहीं है। सेंसर बोर्ड और नेताओं को भी घबराने की जरुरत नहीं है। उन्हें बहानेबाजी और चुप्पी का सहारा लेने की बजाय अपनी राय इस फिल्म पर खुलकर दे देनी चाहिए। जब मेरे-जैसा मामूली हैसियत का आदमी इस फिल्म के बारे में खुलकर बोल रहा है तो वे खुद इस फिल्म को देखने का आग्रह क्यों नहीं करते ? मैंने जैसे यह फिल्म देखी, वैसे ही कुछ चुने हुए लोग इस फिल्म को देखें, तो वह न तो किसी कानून का उल्लंघन है और न ही किसी मर्यादा का। इस तरह फिल्म दिखाने और सिनेमा घरों में उसे दिखाने में बहुत फर्क है। यह दिखाना पैसा कमाने के लिए नहीं, सत्य और शुभ की स्थापना के लिए है।