डॉ. वेदप्रताप वैदिक —
भारत में लोकतंत्र की हालत क्या है, इस मुद्दे पर हमारे देश में और दुनिया में आजकल बहस तेज हो गई है। इस बहस को धार दे दी है, किसान आंदोलन ने। इसके पहले नागरिकता कानून, धारा 370, मनमानी हत्याएँ और अल्पसंख्यकों में भय-व्याप्ति आदि मामलों को लेकर भारत के बारे में यह कहा जाने लगा था कि यहाँ लोकतंत्र का दम घोटा जा रहा है। इन मामलों के अलावा सत्तारुढ़ दल में भाई-भाई राज के उदय पर भी उंगली उठाई जा रही थी। किसान आंदोलन के बारे में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो, प्रसिद्ध पॉप आइकन रिहाना, पर्यावरण प्रवक्ता ग्रेटा टुनबर्ग और अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस के बयानों पर हमारे विदेश मंत्रालय ने आपत्ति की है। बाइडन-प्रशासन ने भी इसी मुद्दे पर आज टिप्पणी की है लेकिन वह रामाय स्वस्ति, रावणाय स्वस्ति– जैसी है। इन सब टिप्पणियों से भी ज्यादा गंभीर खबर यह है कि लंदन की विश्व प्रसिद्ध ‘इकनोमिस्ट इंटेलीजेंस युनिट’ ने अपने ताजा सर्वेक्षण में निष्कर्ष निकाला है कि भारत का लोकतंत्र नीचे की तरफ लुढ़क रहा है और यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात हो रहा है। उसने अपने आँकड़ों के आधार पर कहा है कि 2014 में लोकतांत्रिक पैमाने में भारत का स्थान 27 वाँ था लेकिन मोदी-राज में वह फिसलकर 53 वें पर आ गया है। दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र उन 52 देशों की भीड़ में शामिल हो गया है, जो ‘लंगड़े लोकतंत्र’ कहलाते हैं। इस तरह के देशों में अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम और ब्राजील जैसे देश भी शामिल हैं। इन चार प्रमुख देशों की कतार में खुद को खड़ा देखकर भारत संतोष जरुर कर सकता है लेकिन हमें सोचना चाहिए कि क्या वाकई हम भारत को स्वस्थ और सबल लोकतंत्र बना पाए हैं ? वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र तो अपने आप बन गया है, अपने जनसंख्या-विस्फोट की वजह से लेकिन उसे दुनिया का सबसे बढ़िया लोकतंत्र बनाने के लिए हम क्या कर रहे हैं ? सबसे पहली बात तो यह कि भारत को अपना मनोबल हर हाल में ऊँचा रखना चाहिए। जिस देश ने इंदिरा गांधी–जैसी महाप्रतापी प्रधानमंत्री को कुर्सी से उतारकर चटाई पर बिठा दिया, उसकी तुलना आइसलैंड, नार्वे और न्यूजीलैंड जैसे ‘आदर्श लोकतंत्रों’ से करना उचित नहीं हैं। इनमें से ज्यादातर भारत के एक प्रांत के बराबर भी नहीं हैं और भारत-जैसी विविधता तो उनके लिए अकल्पनीय है। वे भारत–जैसे विदेशी आक्रमणों और सुदीर्घ गुलामी के शिकार भी नहीं रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र कुछ अर्थों में लंगड़ा जरुर है लेकिन आज भी वह काफी तेजी से दौड़ रहा है। हमारे राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र शून्य है लेकिन न्यायपालिका, संसद और खबरपालिका पर कोई अंकुश नहीं है। यदि इनमें से कोई डरपोक, निस्तेज, स्वार्थी और मंदबुद्धि है तो यह उसका अपना दोष है। व्यवस्था अभी तक तो पूरी तरह से लंगड़ी नहीं हुई है।