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सांविधानिक दर्जा की आस में भोजपुरी पांच दशक से सिर्फ आंदोलन और इंतजार

रतन गुप्ता उप संपादक

मशहूर भाषाविद नॉम चोम्स्की के अनुसार भाषा हमारे अस्तित्व का मूल है। अपनी मातृभाषा में ही हम सबसे बेहतर सोच, समझ और अभिव्यक्त कर सकते हैं। महात्मा गांधी ने भी मातृभाषा के प्रति कृतज्ञ होने की बात कही है।
इसी भावना के साथ पिछले पांच दशक से करोड़ों भोजपुरी भाषी एक आस लगाए बैठे हैं कि ‘भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा मिले’। ‘उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए।’ अफसोस! कि अब तक यह आस पूरी न हो सकी है। दूसरे देशों ने इसे मान्यता दे दी लेकिन अपने देश में अब तक भोजपुरी उपेक्षित है। पिछले आम चुनाव में भी यह एक मुद्दा था, तो इस चुनाव में भी करोड़ों भोजपुरी भाषी इसे अपनी अस्मिता से जोड़ कर देख रहे हैं। चल रहा अनवरत आंदोलन भोजपुरी भाषा को संवैधानिक दर्जा दिलाए जाने के लिए पिछले पांच दशक से आंदोलन चल रहा है। सड़क से लेकर संसद तक अपनी इस मांग को लेकर भोजपुरी भाषियों ने अपनी आवाज रखी है।
कई बार सरकारों ने इस बाबत आश्वासन भी दिया, बहसें हुई, लेकिन नतीजा सिफर। इस बीच भोजपुरी भाषियों से कम संख्या बल वाले नेपाली और मैथिली भाषा तक को आठवीं अनुसूची में शामिल कर दिया गया, लेकिन भोजपुरी का इंतजार खत्म न हुआ। कभी बोली -भाषा के भेद का पाठ पढ़ाकर तो कभी नियमों की अस्पष्टता का हवाला देकर भोजपुरीभाषियों की मांग पूरी नहीं होने दी गई। बिहार सरकार ने मार्च 2017 में भोजपुरी को द्वितीय भाषा का दर्जा दे दिया, भारत से अलग मॉरीशस की पहल पर यूनेस्को ने भोजपुरी संस्कृति के ‘गीत-गवनई’ को सांस्कृतिक विरासत का दर्जा दिया, लेकिन केंद्र की सरकारों ने कभी कोई ठोस प्रयास नहीं किया।
केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने भोजपुरी फिल्म समारोह का आयोजन तो किया लेकिन भाषा को संवैधानिक दर्जा कब मिलेगा, इस पर कोई स्पष्ट जवाब नहीं है। 1967 से जारी है लड़ाई भोजपुरी की लड़ाई करीब पांच दशक से चल रही है। 1969 से अब तक संसद में इसे लेकर 18 प्राइवेट मेंबर बिल आ चुके हैं, पांच बार सरकार की ओर से आश्वासन भी दिया गया, लेकिन सरकार ने बिल पेश नहीं किया। 1969 में सांसद भोगेंद्र झा सबसे पहले इस मांग को लेकर प्राइवेट मेंबर बिल लेकर आए थे। 2016 के अगस्त में दिल्ली में इसे लेकर एक बड़ा आंदोलन भी हुआ था।
जब चिदंबरम बोले थे भोजपुरी में 2012 में सांसद जगदंबिका पाल के ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर जवाब देते हुए तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने भोजपुरी में कहा था. ‘हम रउरा सबके भावना के समझतानी।’ हम मानसून सेशन में भोजपुरी को मान्यता देने के लिए बिल लाएंगे। दर्जा देने को यह है प्रक्रिया किसी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए संविधान संशोधन करना होगा। इसके लिए पहले कैबिनेट से प्रस्ताव पास होगा और फिर इसे लोकसभा व राज्य सभा में अलग-अलग दो-तिहाई बहुमत से पास कराना होता है।
संविधान की आठवीं अनुसूची आठवीं अनुसूची देश की मान्यता प्राप्त भाषाओं से संबंधित है। इस अनुसूची में 22 भारतीय भाषाएं हैं। मूल रूप से इसमें 14 भाषाएं थीं, 1967 में सिंधी, 1992 में कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को शामिल किया गया और 2004 में मैथिली, संथाली, डोगरी और बोडो को यह दर्जा मिला। विदेशों में भी बजता है भोजपुरी का डंका देश में भोजपुरी बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में प्रमुखता से बोली जाती है। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के सभी हिस्सों में भोजपुरी बोलने वाले मिल जाएंगे। विश्व में करीब 8 देश ऐसे हैं, जहा भोजपुरी धड़ल्ले से बोली जाती और सुनी जाती है।
नेपाल में 1.7 मिलियन लोग बोलते हैं और यह वहा नेपाली भाषा के बाद सबसे ज्यादा बोली जाने वाली दूसरी भाषा है। मॉरीशस में 336,000 लोग भोजपुरी बोलते हैं। जून 2011 में मॉरीशस की संसद में भोजपुरी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया। वहा के स्कूलों -मीडिया में भी इस भाषा का भरपूर इस्तेमाल होता है। इसी तरह भोजपुरी फिजी की आधिकारिक भाषाओं में से एक है। यहा भोजपुरी को फिजियन हिंदी या फिजियन हिन्दुस्तानी के नाम से जाना जाता है।
सूरीनाम में भी भोजपुरी बोलने वालों की कोई कमी नहीं है। गुयाना में भोजपुरी बोले जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण यहा के भारतीय मूल के निवासी हैं। 30 हजार करोड़ का है भोजपुरी सिनेमा का बाजार भोजपुरी सिनेमा की गुणवत्ता को लेकर आलोचक कुछ भी क्यों न कहें, लेकिन छोटे-बड़े पर्दे पर भोजपुरी का क्षेत्र व्यापक है। एक अनुमान के मुताबिक करीब 150 से अधिक भोजपुरी वेबसाइट इस समय उपलब्ध हैं तो सिनेमा इंडस्ट्री करीब 30,000 करोड़ रुपये की हो गई है। टीवी के 52 चैनल सिर्फ भोजपुरी के ही हैं। कैसे बनी भोजपुरी इतिहासकारों के मुताबिक बिहार के आरा जिले से भोजपुरी भाषा का विकास हुआ।
मध्य काल में मध्य प्रदेश के उच्जैन से भोजवंशी परमार राजा आकर आरा में बस गए। उन्होंने अपनी इस राजधानी को अपने पूर्वज राजा भोज के नाम पर रखा था। इसी वजह से यहा बोली जाने वाली भाषा का नाम ‘भोजपुरी’ पड़ गया। यानी इस भाषा का नाम राजा भोज के नाम पर पड़ा।
जनगणना वर्ष – भोजपुरी भाषी
1961 – 7964755
1971 – 14340690
1981 – 15888906
1991 – 23102050
2001 – 33099497
मांग हुई पूरी तो यह होगा फायदा

  • भाषाई अस्मिता की पहचान पुख्ता होगी।
  • स्कूल-कॉलेजों की किताब भोजपुरी में उपलब्ध हो सकेगी। अपनी भाषा में पढ़ने और परीक्षा देने का अवसर मिलेगा।
  • यूपीएससी जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं में भोजपुरी एक भाषा के रूप में शामिल होगी। इससे भोजपुरी भाषी युवाओं को फायदा मिलेगा।
  • 8वीं अनुसूची में शामिल होने के बाद भाषा के विकास के लिए सरकारी अनुदान मिल सकेगा। इससे नए शोध, विकास आदि के लिए उपयोग किया जा सकेगा। – सांसद, विधायक भोजपुरी भाषा में भी शपथ ग्रहण कर सकेंगे।
  • साहित्य अकादमी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान भोजपुरी को मान्यता देंगे।
  • भोजपुरी फिल्मों के लिए सरकारी स्तर पर कोई पूछ नहीं है। न कोई संस्था और न कोई संगठनात्मक ढांचा।
  • राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के लिए भोजपुरी फिल्में भी प्रतिभाग कर सकेंगी। इससे गंभीर प्रतिस्पर्धा भी शुरू होगी और भोजपुरी में उत्कृष्ट कला का सृजन हो सकेगा। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री ने संसद में यह बोला केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजीजू ने 2017 में संसद में कहा था कि चूंकि बोली और भाषा का विकास सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास से प्रभावित होता है, अत: उन्हें बोली से अलग बताने अथवा भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के संबंध में भाषा संबंधी कोई मानदंड निश्चित करना कठिन है।
    इस प्रकार ऐसा निश्चित मानदंड तैयार करने के संबंध में 1996 में पाहवा समिति, 2003 में सीताकात महापात्र समिति के माध्यम से किए गए दोनों प्रयासों का कोई फायदा नहीं हुआ है। विश्वविद्यालयों में हो रही भोजपुरी की पढ़ाई देश के दर्जन भर से अधिक विश्वविद्यालयों में भोजपुरी से जुड़े पाठ्यक्रम चल रहे हैं। काशी ¨हदू विश्वविद्यालय के कला संकाय अंतर्गत भोजपुरी अध्ययन केंद्र स्थापित है तो शकुंतला मिश्रा पुनर्वास विवि, वीर कुंअर सिंह विवि, आरा, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विवि, नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी, दिल्ली विश्वविद्यालय आदि में सर्टिफिकेट, डिप्लोमा, पीजी डिप्लोमा, फाउंडेशन, फुल टाइम, पार्ट टाइम कोर्स सफलतापूर्वक चल रहे हैं। गोरखपुर विश्वविद्यालय की बात करें तो यहां प्रो. चित्तरंजन मिश्र और डॉ. विमलेश ने ‘भोजपुरी साहित्य संचयन’ का सम्पादन किया है।
    यही नहीं विवि के ‘एमए द्वितीय वर्ष में लोक साहित्य का सिद्धात और भोजपुरी साहित्य का एक पेपर है।’ इसके तहत गोरखनाथ, कबीर, पलटूदास, झीनकराम, हीराडोम, मनोरंजन प्रसाद सिन्हा, मोती बीए, धरीक्षण मिश्र, गोरख पाडेय, रामजियावन दास बावला सहित तमाम साहित्यकारों की रचनाएं पढ़ाई जा रही हैं। राहुल सांकृत्यायन का ‘जोंक’, भिखारी ठाकुर का ‘गबर घिचोर’, विमलानंद सरस्वती का ‘किसान भगवान’, प्रो.रामदेव शुक्ल का ‘ तिसरकी आंख का अन्हार’, विवेकी राय का ‘भड़ेहर’, विश्वनाथ तिवारी की ‘इमली की बीघा’ सहित कई कहानिया पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। गोरखपुर शहर में भोजपुरी रचनाकार खूब सक्रिय हैं। सूर्यदेव पाठक पराग, रवींद्र श्रीवास्तव जुगानी भाई, श्रीधर मिश्र, धर्मेन्द्र त्रिपाठी, इंजीनियर राजेश्वर सिंह, आरडीएन श्रीवास्तव, फूलचंद गुप्त सहित कई रचनाकार सतत सक्रिय हैं।
    ‘मनबढ़’, ‘ग्राम जगत’, ‘लप्टन साहब’ की याद सा शल मीडिया से लगायत फिल्मी पर्दे पर छा चुकी भोजपुरी में बने एक जमाने के टीवी और रेडिया कार्यक्रम अब भी लोगों के जेहन में ताजा हैं। 90 के दशक में गोरखपुर दूरदर्शन पर धारावाहिक ‘मनबढ़’, नवंबर 1974 से नियमित गोरखपुर आकाशवाणी का ‘ग्राम जगत’ और ‘लप्टन साहब’ जैसे कार्यक्रम खास है। क्या कहते हैं साहित्यकार गोरखपुर विश्वविद्यालय ¨हदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. चित्तरंजन मिश्र का कहना है कि भोजपुरी हर उस मानक पर खरी उतरती है, जो आठवंीं अनुसूची में शामिल होने के लिए जरूरी है। इससे कम संख्या बल वाली भाषाएं यह दर्जा पा चुकी हैं, फिर भोजपुरी के साथ सौतेलापन क्यों? भोजपुरी केवल भाषा नहीं, दर्शन भी है। साहित्यकार मुकेश आचार्य का कहना है कि संवैधानिक दर्जा पाना, भोजपुरी का हक है। अफसोस है कि अब तक ऐसा नहीं हो सका है। भोजपुरी की समृद्धि से ¨हदी कमजोर होगी, ऐसा मानना निराधार है। भोजपुरी बोली नहीं भाषा है और इसके विकास से हिंदी और मजबूत होगी न कि कमजोर।
    भाषा अ भोजन एक दूसरे से जुड़ल हवे वरिष्ठ भोजुपरी साहित्यकार रवींद्र श्रीवास्तव, ‘जुगानी’ का कहना है कि भासा आ भोजन क सवाल एक दुसरे से जुड़ल सवाल होलें। जवने इलाका क बोली गरीब बना दीहल जाला ऊ इलाका अपने आप गरीब होत चलि जाला। कारन साफ हवे। हमरे लगे आपन मारे समस्या होलिन बकिर ओके अपने ढंग से बतावे खातिर आपन बोली न हो, तब सज्जो बेकार। ओही क नतीजा रहल कह जब दुनिया में औद्योगीकरन के दउर सुरू भइल त हमहन के उनकर धियान खींच नाई पवलीं आ भाग-भाग के रोजी-रोटी खोजत-खोतज समुंदर पार ले जाए लगलीं। उहां दिन भर पाथर तोड़त पीठी पर कोड़ा खात राती क अपने कजरी, सोहर, बिरहा के बले आपन लोक संस्कृति बचवलें रहलीं। धीरे-धीरे एह बोली क महातिम बढ़ल आ ओह ई भोजपुर आपन झंडा गाड़त चलि गइल। एही रोटी खातिर बंबई में पीठी पर डंडा खाये के परल आ ‘भइया जी’ के अपमानित कइ के उहां से भगावल गइल।
    एक हीन भावना अइसन भराइल की ई मजदूर क बोली हवे कहि के ओके छोट बनावत चलि गइल। आज विश्व क ई सबसे बड़ी बोली, जवन अपने देस के पांच राज्यन में आ दुनिया के सात देसन में बोलल जाला। ओके अपने देसे में एह तरह क व्यवहार झेले के परत बा।

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