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Gujarat Vs Kerala: गुजरात से भी ज्यादा पुराना केरल मॉडल, आखिर क्यों कर रहा लेफ्ट-राइट, आंकड़ों से समझें

केरल मॉडल 1970 का है, जबकि गुजरात मॉडल की चर्चा पहली बार साल 2007 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी। दक्षिण का राज्य केरल वामपंथी नीतियों के अनुकरणीय उत्पाद के रूप में केंद्र की वामपंथी पार्टियों द्वारा लंबे समय से इसकी प्रशंसा की जाती रही है।

मलयालम भाषी अखबार में छपी एक तस्वीर, चार बच्चें कूड़े के ढेर में से भोजन ढूंढते हुए नजर आते हैं। इस तस्वीर का संदर्भ देते हुए तिरुअनंतपुरम में केरल के एसटी कम्युनिटी में नवजात बच्‍चों की मृत्‍यु दर का जिक्र करते हुए देश के प्रधानमंत्री का वो बयान केरल के आदिवासी इलाकों में बच्चों की स्थिति सोमालिया से भी ज्यादा खतरनाक है। प्रधानमंत्री मोदी ने केरल में राज्य की आर्थिक स्थिति का मुकाबला सोमालिया से कर दिया। सोमालिया में पिछले कई सालों से कानून व्यवस्था के हालात पूरी दुनिया के बदतररीन जगह है उनमें से एक है। ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स के मद्देनजर भी सोमालिया काफी निचले स्तर पर है।

पीएम मोदी ने बेरोजगारी से लेकर नवजात शिशुओं की मृत्यु तक का मुद्दा भी उठाया। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अगर देखें तो मॉडल शब्द का जिक्र होते ही तपाक से सबके मुंह से गुजरात निकल जाता है। वो गुजरात मॉडल जिसे प्रजेंट कर नरेंद्र मोदी सूबे के मुख्यमंत्री से देश के प्रधान तक का सफर तय किया। लेकिन आपको बता दें कि ‘मॉडल स्टेट’ वाला एक और राज्य है जिसका इतिहास इस मामले में गुजरात से भी ज्यादा पुराना माना जाता है। केरल मॉडल 1970 का है, जबकि गुजरात मॉडल की चर्चा पहली बार साल 2007 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी। दक्षिण का राज्य केरल वामपंथी नीतियों के अनुकरणीय उत्पाद के रूप में केंद्र की वामपंथी पार्टियों द्वारा लंबे समय से इसकी प्रशंसा की जाती रही है। आधी सदी से अधिक समय से यह अधिकांश सामाजिक सूचकांकों में लगातार पहले स्थान पर है। वहीं प्रधानमंत्री मोदी का गृह राज्य गुजरात जिसने पिछले चार दशकों में मुंबई या बैंगलोर जैसी वित्तीय या तकनीकी राजधानी के बिना व्यापक पानी की कमी के बावजूद अन्य बड़े राज्यों की तुलना में तेजी से आधुनिकीकरण, शहरीकरण और औद्योगीकरण करते हुए तीनों आर्थिक क्षेत्रों में पर्याप्त समृद्धि लायी है। ऐसे में आंकड़ों के जरिये जानने की कोशिश करते हैं कि केरल और गुजरात मॉडल के बीच क्या अंतर है ? इस कवायद के लिए हमने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा अपनी वार्षिक ‘हैंडबुक ऑफ स्टैटिस्टिक्स ऑफ इंडियन स्टेट्स’ में प्रकाशित नवीनतम आंकड़ों का उपयोग किया है।

दूध उत्पादन

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सहकारिता मॉडल ने गुजरात को 1950 के दशक से एक स्पष्ट प्रथम-प्रवर्तक लाभ का तोहफा दिया था। उल्लेखनीय बात यह है कि राज्य ने अपने पैरों को विराम दिए बिना इस शताब्दी में दूध उत्पादन के स्तर को लगातार बढ़ाना जारी रखा है। इसके विपरीत, केरल न केवल इस दृष्टिकोण को अपनाने में विफल रहा बल्कि जो कम उत्पादन स्तर है उसे भी बनाए रखने में विफल रहा है। आंकड़ों से पता चलता है कि केरल में दूध उत्पादन में वास्तव में 2013 से लगातार गिरावट आई है। 

अंडे

उपरोक्त चार्ट पर सामान्य संदिग्धों की पहली प्रतिक्रिया यह होगी कि, अहा!, केरल अंडे के उत्पादन में गुजरात को पीछे छोड़ दिया है। हाँ, इसमें गलक कुछ भी नहीं है। यह गुजरात को अंडे भी निर्यात करता है। लेकिन इस डेटा सेट से सही निष्कर्ष यह है कि गुजरात ने इस सदी के पहले दशक में तेजी से उत्पादन बढ़ाया, जिसके बाद इसने स्थिर विकास दर बनाए रखी है। इसके विपरीत, केरल में अंडा उत्पादन 2015 में अपने चरम से लगातार गिर गया है। यदि ये रुझान जारी रहता है, तो गुजरात अगले 5-7 वर्षों में केरल को पीछे छोड़ सकता है। 

मछली उत्पादन

कौन इस बात पर विश्वास कर सकता है कि गुजरात केरल से अधिक मछली पैदा करता है? इतना ही नहीं, यह साल दर साल लगातार उत्पादन बढ़ाता जा रहा है। केरल में 2005 से 2009 तक मछली उत्पादन में गिरावट आई, फिर 2011 से 2014 तक, 2016 और 2019 के बीच नाटकीय रूप से गिरावट आई, केवल 2020 में फिर से गिरावट आई। यह अत्यंत दिलचस्प है क्योंकि केरल में मछुआरा समुदाय राजनीतिक रूप से एक शक्तिशाली इकाई है। कम्युनिस्ट और कांग्रेसी दोनों नेता समुदाय के हितों की रक्षा करने और खुद को मछुआरों के सबसे अच्छे दोस्त के रूप में पेश करने की कोशिश में एक-दूसरे पर निशाना भी साधते हैं। अब केरल के मछुआरे क्या कहेंगे, जब उन्हें पता चलता है कि उनके क्षेत्र को इतने लंबे समय तक विभिन्न प्रकार के समाजवादियों द्वारा बुरी तरह से कुप्रबंधित किया गया है, जबकि गुजरात के मछुआरे हर साल उत्पादकता में लगातार सुधार कर रहे हैं?

उत्पादन

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। गुजरात ने पिछले दो दशकों में औद्योगिक क्षेत्र से इतनी तेजी से इजाफा किया है कि अब यह टॉप पोजीशन के लिए महाराष्ट्र के साथ रेस में है। संख्या चौंका देने वाली है। समाजवाद की वकालत करने वाले कह सकते हैं कि यह एक अनुचित तुलना है, क्योंकि केरल एक औद्योगिक राज्य नहीं है। काफी उचित है, लेकिन वे इस तथ्य की व्याख्या कैसे करेंगे कि 2018 के बाद से इन अल्प विनिर्माण स्तरों के मूल्य में भी गिरावट आई है?

स्थापित बिजली क्षमता

केरल ने बिजली पैदा करने की अपनी क्षमता में भौतिक रूप से वृद्धि नहीं किया है क्योंकि इसकी आवश्यकता नहीं है। उद्योग जगत से मांग ही नहीं है तो इस क्षेत्र में निवेश की जरूरत कहां है? 

राज्य सरकारों की बकाया गारंटी

यह शायद सबसे खतरनाक मेट्रिक्स में से एक है। केरल सरकार को खर्चों को पूरा करने के लिए इतनी भारी मात्रा में उधार लेने की सख्त जरूरत है, और फिर कर्ज चुकाने के लिए और भी अधिक उधार लेने की जरूरत है, जिसने न केवल एक भयानक कर्ज जाल बनाया है, बल्कि राज्य की रेटिंग को भी नीचे धकेल दिया है। जैसा कि राज्य के पूर्व वित्त मंत्री थॉमस इसाक ने कहा, केरल दिवालिया है।

कुल मिलाकर कहें तो ये केवल कुछ मेट्रिक्स हैं जो कल्याणवाद के खतरों को उजागर करते हैं। आरबीआई के बाकी आंकड़े केवल केरल में लगातार समाजवादी-कल्याणवादी सरकारों द्वारा नियोजित निराशाजनक राजकोषीय अक्षमता और आश्चर्यजनक लापरवाही को बढ़ाया करते हैं। मुद्दा यह है कि अगर किसी राज्य में जनसंख्या, मांग, खपत और आय बढ़ती है, लेकिन दूध का उत्पादन कम हो जाता है, तो सामाजिक सूचकांक रेटिंग एक बिंदु से अधिक मायने नहीं रखती है। यह दिखावटी तर्क है।

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