नोटबंदी: काठ की हांडी

नोटबंदी पर रिजर्व बैंक की जो सालाना रपट आई है, उसने सिद्ध कर दिया है कि वह वित्तीय आपात्काल से कम नहीं थी। इंदिरा गांधी ने आपात्काल थोपकर जितनी बड़ी गलती की थी, लगभग उतनी ही बड़ी दुर्घटना नरेंद्र मोदी के हाथों हो गई है। इसे मैं ‘लगभग’ उतनी बड़ी गल्ती क्यों कह रहा हूं ? इसलिए कि इंदिराजी ने आपात्काल थोपा था, अपने स्वार्थ के लिए जबकि नोटबंदी के पीछे मोदी का अपना कोई स्वार्थ नहीं था। मोदी का वह स्वार्थ नहीं, दुस्साहस था। अनिल बोकिल के नोटबंदी के विचार को मोदी ने यदि ठीक से लागू किया होता तो शायद आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। बोकिल के विचार पर मोदी ने अपना मुखौटा तो सफलतापूर्वक चढ़ा दिया लेकिन मुंह और मुखौटे का फर्क अब खुद रिजर्व बैंक की रपट से उजागर हो गया है।
यह माना जा रहा था कि भारत की लगभग 15 लाख करोड़ रु. की अर्थ-व्यवस्था में आधे से ज्यादा काला धन है। मोदी ने दावा किया था कि नोटबंदी इसलिए लागू की गई है कि सारा कालाधन पकड़ा जाएगा लेकिन हुआ क्या ? रिजर्व बैंक की रपट कहती है कि हमारे पास पकड़ने के लिए कुछ बचा ही नहीं। सारा काला धन लोगों ने सफेद कर लिया। 99 प्रतिशत। सिर्फ एक प्रतिशत रह गया। 15.44 लाख करोड़ में से सिर्फ 16000 करोड़ के नोट वापस नहीं आए याने इस 16 हजार करोड़ रु. के कालेधन के खातिर सरकार ने नए नोट छापने में 21000 करोड़ रु. खर्च कर दिए। याने हमारे सर्वज्ञजी ने बैठे-बिठाए भारत की जनता को हजारों करोड़ रु. का चूना लगा दिया। नोट बदली की लाइन में लगे 104 लोगों की मौत तो आपात्काल से भी बदतर साबित हुई। दो-दो हजार और पांच-पांच सौ के छोटे-छोटे नोटों  ने कालेधन को जमा करना अधिक सुविधाजनक बना दिया। बैंकों में जमा सफेद और काले धन पर इतना ब्याज देना पड़ा कि कई बैंकों की दाल पतली हो गई। पूंजी का विनियोग घटा और लगभग 50 लाख लोग बेरोजगार हो गए। कम से कम 4-5 लाख करोड़ रु. का काला धन पकड़ने का दावा सिर्फ सपना बनकर रह गया। नोटबंदी का एक लक्ष्य यह भी बताया गया था कि आतंकवादियों की खुराक बंद हो जाएगी। वह आज भी जस की तस है। नकली नोटों को खत्म करने का भी वादा था। वह भी डूब गया। नोटबंदी के साल में नकली नोटों की संख्या 6.32 लाख से बढ़कर 7.62 लाख हो गई। देश के सकल उत्पाद में 2 प्रतिशत की कमी हो गई। यह अर्थ-व्यवस्था को बड़ा धक्का है। यह ठीक है कि बैंकों में लाखों नए खाते खुल गए, सरकार को इस साल आयकर भी थोड़ा ज्यादा मिला और नकदी लेन-देन भी थोड़ा घटा लेकिन ये उपलब्धियां सतही हैं, ऊपरी हैं, दिखावटी हैं और अस्थायी हैं। सरकार की इस भयंकर भूल पर लोगों को गुस्सा इसलिए नहीं आया कि नोटबंदी के पीछे कोई स्वार्थ नहीं था और दूसरा इसे गरीबों के लिए उठाया गया कदम उसी तरह बताया गया, जैसे कि इंदिराजी ने 1971 में ‘गरीबी हटाओ’ का नकली नारा दिया था। डर यही है कि यह खोटा सिक्का इस बार तो चल गया लेकिन क्या काठ की हांडी दूजी बार भी चूल्हे पर चढ़ सकेगी ?

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